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पहला अध्याय
प्रश्न और उसका हल
वेदमें कुछ रहस्यकी बात है भी कि नहीं, अथवा क्या अब भी वेदमें कुछ रहस्यकी बात रह गयी है ?
यह है प्रश्न जिसका उत्तर साधारणतया 'नकार' में दिया जाता है, क्योंकि प्रचलित विचारोंके अनुसार तो उस पुरातन गुह्यका-वेदका-हृदय निकालकर बाहर रख दिया गया है और उसे सबके दृष्टिगोचर बना दिया गया है, बल्कि अघिक ठीक यह है कि उसमें वास्तविक रहस्यकी कुछ बात कभी कोई थी ही नहीं । वेदके सूक्त एक ऐसी आदिम जातिकी यज्ञ- बलिदान-विषयक रचनाएँ हैं जो अभी तक जंगलीपन से नहीं उठीं । वे धर्मानुष्ठान तथा शान्तिकरण-संबंधी रीति-रिवाजोंकी एक परिपाटीकी रटमें लिखे गये हैं, प्रकृतिकी शक्तियोंको सजीव देवता मानकर उन्हें सम्बोधित किये गये हैं और अधकचरी गथाओं तथा अभी बन रहे अधूरे नक्षत्रविद्या - .संबंधी रूपकोंकी गड़बड़ और अव्यवस्थित सामग्रीसे भरपूर हैं । केवल अन्तिम सूक्तोंमें हमें कुछ गंभीरतर आध्यात्मिक तथा नैतिक विचारोंका प्रथम आविर्भाव देखनेको मिलता है-ये विचार भी कइयोंकी सम्मतिमें उन विरोधि द्रविड़ोंसे लिये गये हैं, जो ''लुटेरे'' और ''वेदद्वेषी'' थे, जिन्हें इन सूक्तोंमें ही जी भरकर कोसा गया है-और ये चाहे किसी तरह प्राप्त किये गये हों, आगे आनेवाले वैदान्तिक सिद्धान्तोंका प्रथम बीज बने । वेदके सम्बन्ध में यह आधुनिकवाद उस स्वीकृत विचारके अनुसार है, जो मानता है कि मनुष्यका विकास बिल्कुल हालकी जंगली अवस्थासे शीघ्रता-पूर्वक हुआ है और इस वादका समर्थन समालोचनात्मक अनुसन्धानकी एक रोबदाबवाली साधन-सामग्री द्वारा किया गया है तथा अनेक शास्त्रोंकी साक्षी द्वारा इसे पुष्ट भी किया गया है । दुर्भाग्यवश ये शास्त्र अभी तक बाल-अवस्थामें हैं और इनके तरीके अभी तक बहुत कुछ अटकल लगानेवाले तथा इनके परिणाम बदलनेवाले हैं । ये हैं -तुलनात्मक भाषाशास्त्र, तुलनात्मक गाथाशास्त्र तथा तुलनात्मक धर्मका शास्त्र ।
'वेदरहस्य, नामसे इन अध्यायोंके लिखनेका मेरा उद्देश्य यह है कि मैं इस पुरातन प्रश्नके लिए एक नथी दृष्टिका निर्देश करूँ । अभी तक इस ३३ प्रश्नके जो हल प्राप्त हुए हैं उनके विरुद्ध एक अभावात्मक और खण्डनात्मक तरीका इस्तेमाल करनेका मेरा इरादा नहीं है, मैं तो यहाँ केवल भावात्मक और रचनात्मक रूपमें एक कल्पना उपस्थित करूँगा, एक स्थापना (प्रतिज्ञा ) करूँगा जो अधिक विस्तृत आधारपर रची गयी है और जो बृहत्तर तथा एक प्रकारसे पूरक स्थापना है । इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि यह स्थापना प्राचीन विचार और मतके इतिहासमें एक-दो ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंपर भी प्रकाश डाल सके, जो अभीतक के सामान्य वादों द्वारा ठीक तरह हल नहीं किये जा सके हैं ।
योरोपियन विद्वानोंके ख्यालमें ऋग्वेद ही एकमात्र सच्चा वेद है । इसमें हमें यज्ञसम्बन्धी सूक्तोंका जो समुदाय मिलता है वह एक ऐसी अति प्राचीन भाषा में निबद्ध है जो बहुत-सी लगभग न हल होने लायक कठिनाइयाँ उपस्थित करती है । यह ऐसे शब्दों और शब्दरूपोंसे भरा पड़ा है जो आगेकी भाषामें नहीं पाये जाते. और जिन्हें प्रायः बौद्धिक अटकल द्वारा कुछ सन्देहयुक्त अर्थमें लेना पड़ता - है । ऐसे बहुतसे शब्द भी जो वेदकी तरह अभिजात संस्कृतमें भी वैसे ही पाये जाते हैं वेदमें उनसे कुछ भिन्न अर्थ रखते प्रतीत होते हैं या कम-से-कम उनसे भिन्न अर्थवाले हो सक्ते हैं जो आगेकी साहित्यिक संस्कृतमें उनके अर्थ हुए हैं । और इसकी शब्दावलीका एक बहुत बड़ा़ भाग, विशेषतया अतिसामान्य शब्द, वे जो कि अर्थकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, आश्चर्यजनक रूपसे इतने विविध प्रकारके परस्पर असम्बद्धसे अर्थ देनेवाले होते हैं कि उनसे, चुनावकी अपनी पसंदगीके अनुसार, संपूर्ण मंत्रको, संपूर्ण सूक्तको बल्कि संपूर्ण वैदिक अभिप्राय को एक बिल्कुल दूसरी रंगत दी जा सकती है । इन वैदिक प्रार्थनाओके अभिप्राय और अर्थको निश्चित करनेके लिये पिछले कई हजार वर्षोमें कम-से-कम तीन गम्भीर प्रयत्न किये जा .चुके हैं । इनमेंसे एक तो-.
( 1 ) ऐतिहासिक कालसे पूर्वका है और यह केवल विच्छिन्न रूपमें ब्राह्मणों और उपनिषदोंमें मिलता है । ( 2 ) परंतु भारतीय विद्वान् सायणका परंपरागत भाष्य संपूर्ण रूपमें उपलब्ध है तथा- ( 3 ) आज अपने ही समयमें आधुनिक योरोपियन विद्वन्मण्डली द्वारा तुलना और अटकलके महान् परिश्रमके उपरांत तैयार किया गया भाष्य भी विद्यमान है 1 इन पिछले दोनों (सायण और योरोपियन ) भाष्योंमें एक विशेषता समान रूपसे दिखाई देती है--असाधारण असंबद्धता और अर्थलाधव । ३४ वेदमें कहे गये विचार अत्यंत असंबद्ध हैं और उनमें कोई अर्थगौरव नहीं है, यह है छाप जो परिणामत: इन भाष्यों द्वारा उन प्राचीन सूक्तों (वेद) पर लग जाती है । एक- वाक्यको जुदा लेकर उसे, चाहे स्वाभाविकतया अथवा अटकलके जोरपर, एक उत्कष्ट अर्थ दिया जा सकता है या ऐसा अर्थ दिया जा सकता है जो संगत लगे; शब्दविन्यास जो बनता है वह चाहे चटकीली- भड़कीली शैलीमें है, चाहे फालतू और शोभापरक विशेषणोंसे भरा है, चाहे तुच्छसे भावको असाधारण तौरपर मनमौजी अलंकार या शब्दाडंबरके आश्चर्यकर विशाल रूपमें बढ़ा दिया गया है, फिर भी उसे बुद्धिगम्य वाक्योंमें रखा जा सकता है, परंतु जब हम सूक्तोंको इन भाष्योकें अनुसार समूचे रूपमें पढ़कर .देखते हैं, तो हमें प्रतीत होता है कि इनके रचयिता ऐसे लोग थे जो, अन्य जातियोंके ऐसे प्रारंभिक रचयिताओंके विसदृश, संगत और स्वाभाविक भावप्रकाशन करने या सुसंबद्ध विचार करनेके अयोग्य थे । कुछ छोटे और सरल सूक्तोंको छोड़कर इनकी भाषा या तो धुंधली है या कृत्रिम; विचार या तो संबंध-रहित हैं या व्याख्या करनेवाले द्वारा जबरदस्ती और ठोक-पीटकर ठीक बनाये गये हैं । ऐसा मालूम देता है कि मूल मंत्रोंको लेकर बैठे विद्वान्को इस बातके लिये, बाधित-सा होना पड़ा है कि उनकी व्याख्या करनेके स्थानपर वह लगभग नयी गढ़न्त करनेकी प्रक्रियाको स्वीकार करे । हम अनुभव करते है कि भाष्यकार वेदके ही अर्थको उतना प्रकट नहीं कर जितना कि वह काबूमें न आनेवाली इसकी सामग्रीको पकड़कर उससे कुछ शकल बनाने और. उसे संगत करनेके लिये उसे ठोक-पीट रहा और कुछ बना रहा है ।
तो भी इन धुंधली और जंगली रचनाओंको समस्त साहित्यके इतिहासमें एक अत्यंत शानदार उत्तम सौभाग्य प्राप्त हुआ है । ये न केवल संसारके कुछ सर्वोत्कृष्ट और गंभीरतम धर्मोंके अपितु उनके कुछ सूक्ष्मतम पराभौतिक दर्शनोंके भी सुविख्यात आदिस्रोतके रूपमें मानी जाती रही हैं । सहस्रों वर्षों चली आयी परंपराके अनुसार, ब्राह्मणों और उपनिषदोंमें, तंत्रों और पुराणोंमें, महान् दार्शनिक संप्रदायोंके सिद्धांतोंमें तथा प्रसिद्ध संतों-महात्माओंकी शिक्षाओंमें जो कुछ भी प्रामाणिक और सत्य करके माना जा सकता है, उस सबके मूलस्रोत और आदर्श मानदंडके रूपमें ये सदा आदृत की गयी हैं । इन्होंने जो नाम पाया वह था वेद अर्थात् ज्ञान,-वेद यह उस सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्यके लिये माना हुआ नाम है जहाँतक कि मनुष्यके मनकी गति हो सकती है । किंतु यदि हम प्रचलित भाष्योंको-वे चाहे सायणके हों या आघुनिक सिद्धांतके माननेवाले बिद्वानोके--स्वीकार करते हैं तो ३५ वेदकी यह .सब-की-सब अत्युत्कृष्ट और पवित्र ख्याति एक बड़ी भारी गप्प हो जाती है । तब तो उलटे वेदमंत्रोंमें इससे अधिक और कुछ नहीं है कि ये ऐसे अशिक्षित और भौतिकवादी जंगलियोंकी अनाड़ी और अंधविश्वास-पूर्ण कल्पनाएँ हैं जिन्हें केवल अत्यंत स्थूल लाभों और भोगोंसे ही मतलब था और जो अत्यंत प्रारंभिक नैतिक विचारों तथा घार्मिक भावनाओंके सिथाय और किसी भी बातसे अनभिज्ञ थे । और इन भाष्यों द्वारा वेदके विषयमें हमारे मनोंपर जो यह अखंड छाप पड़ती है; उसमें कहीं-कहीं आ जानेवाले कुछ भिन्न प्रकारके वेदवाक्योंके कारण, जो कि वेदकी अन्य सामान्य भावनाके बिलकुल विसंवादी होते हैं, कुछ भंग नहीं पड़ता । उनके इस विचारके अनुसार आगे आनेवाले धर्मो और दार्शनिक विचारोंके सच्चे आधार या उद्गम-स्थान तो उपनिषदें हैं न कि वेद । और फिर, उपनिषदोंके विषयमें हमें यह कल्पना करनी पड़ती है कि ये दार्शनिक और विचारशील प्रवृत्ति रखनेवाले मनस्वी पुरुषों द्वारा वेदके कर्मकांडमय भौतिकवादके विरुद्ध किये गये विद्रोहके परिणाम हैं ।
परंतु इस कल्पनासे, जिसका योरोपीय इतिहासके समानान्तर उदाहरणों द्वारा जो कि भ्रमोत्पादक हैं समर्थन भी किया गया है, वस्तुत: कुछ सिद्ध नहीं होता । ऐसे गंभीर और चरम सीमा तक पहुंचे हुए विचार, ऐसी सूक्ष्म और महाप्रयत्न द्वारा निर्मित अध्यात्मविद्याकी पद्धति जैसी कि सारत: उपनिषदोंमें पायी जाती है, किसी पूर्ववर्ती शून्यसे नहीं निकल आयी है । प्रगति करता हुआ मानव मन एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञान तक पहुँचता है या किसी ऐसे पूर्ववर्ती ज्ञानको जो धुंधला पड़ गया और ढक गया होता है, फिरसे नया और वृद्धिगत करता है अथवा किन्हीं पुराने अधूरे सूत्रोंको पकड़ता और उनके द्वारा नये आविष्कारोंको प्राप्त करता है । उपनिषदोंकी विचारधारा अपनेसे पहले विद्यमान किन्हीं महान् उद्गमोंकी कल्पना करती है और प्रचलित वादोंके अनुसार ये उद्गम कोई हैं ही नहीं । इस रिक्त स्थानको भरनेके लिये जो यह कल्पना गढ़ी गयी है कि ये विचार जंगली आर्य आक्रान्ताओंने सभ्य द्राविड़ लोगोंसे लिये थे, एक ऐसी अटकल है जो केवल दूसरी अटकलों द्वारा ही संपुष्ट की गयी है । सचमुच अब इस प्रकारका संदेह किया जाने लगा है कि पंजाबसे होकर आर्योंके आक्रमण करनेकी सारी कहानी ही कहीं भाषाविज्ञानियोंकी गढ़न्त तो नहीं है । अस्तु ।
प्राचीन योरूपमें जो बौद्धिक दर्शनोंके संप्रदाय हुए थे, उनसे पहले रहस्य-वादियोंके गुह्य सिद्धान्तोंका एक समय रहा था; ओर्फिक (Orphic ) और एलूसिनियन. ( Elecusinian) रहस्यविद्याने उस उपयाऊ मानसिक ३६ क्षेत्रको तैयार किया था जिसमेसे पिथागोरस और प्लेटोकी उत्पत्ति हुई । इसी प्रकारका उद्गमस्थान भारतमें भी आगेके यिचारोंकी प्रगतिके लिये रहा हो यह बहुत संभवनीय प्रतीत होता है । इसमें सन्देह नहीं कि उपनिषदोंमें हम विचारोंके जो रूप और प्रतीक पाते है उनका बहुत-सा भाग तथा ब्राह्मणोकी विषय-सामग्रीका बहुत-सा भाग भी भारतमें एक ऐसे कालकी कल्पना करता है जिसमें विचारोंने उस प्रकारकी गुह्य शिक्षाओंका रूप या आवरण धारण किया था जैसी ग्रीक रहस्यविद्याओंकी शिक्षायें थीं ।
दूसरा रिक्त स्थान, जो अभीतक माने गये वादों द्वारा भरा नहीं जा सका है, एक ऐसी खाई है जो कि एक तरफ वेदमें पायी जाती बाह्य प्राकृतिक शक्तियोंकी जड़-पूजाको और दूसरी तरफ ग्रीक लोगोंके विकसित घर्मको तथा उपनिषदों और पुराणोंमें जिन्हें हम पाते हैं ऐसे देयताओंके कार्योके साथ सम्बन्धित किये गये मनोवैंभ्रानिक और आध्यात्मिक विचारोंको विभक्त करती है । क्षण भरके लिये यहां हम इस मतको भी स्वीकार किये लेते हैं कि मानवधर्मका सबसे प्रारम्भिक पूर्णतया बुद्धिगम्य रूप अवश्यमेव प्रकृति-शक्तियोंकी पूजा ही होता है, जिसमें वह इन शक्तियोंको वैसी ही चेतना और व्यक्तित्वसे युक्त मानता है जैसी वह अपनी निजी सत्तामें देखता है । धर्मका प्रारंभिक रूप ऐसा इसलिए होता है कि पार्थिव मनुष्य बाह्यसे प्रारंभ करता है और आंतरकी तरफ जाता है ।
यह तो मान ही रखा है कि वेदका अग्नि देवता आग है, सूर्य देवता सूर्य है, पर्जन्य बरसनेवाला मेघ है, उषा प्रभात है, और यदि किन्हीं अन्य देवताओंका भौतिक रूप या कार्य इतना अधिक स्पष्ट नहीं है, तो यह आसान काम है कि उस अस्पष्टताको भाषाविज्ञान की अटकल या कुशल कल्पना द्वारा दूर कर उसे स्पष्ट भौतिक अर्थ में ठीक कर लिया आय । पर जब हम ग्रीक लोगोंकी देव-पूजापर आते हैं, जो आधुनिक कालगणनाके विचारोंके अनुसार वेदके कालसे अधिक पीछेकी नहीं है, तो हम महत्त्वपूर्ण परिवर्त्तन पाते हैं । देवताओंके भौतिक गुण बिल्कुल मिट गये हैं या वे उनके आध्यात्मिक रूपोंके गौण अंग हो गये हैं । तीव्र-वेगशाली अग्नि-देवता बदलकर पंगु श्रम-का-देवता हो गया है । सूर्य-देवता, अपोलो ( Apollo) कविता और भविष्यवाणीसम्बन्धी अन्त:स्कुरणाका अघिष्ठातृ-देवता हो गया है । एथिनी ( Athene) जिसे प्रारंभिक अवस्थामें हम सम्भवतः उषादेथी करके पहचान सकते हैं, अब अपने भौतिक व्यापारोंकी सब याद भूल गयी है और बुद्धिशालिनी, वलधारिणी, शुद्धं ज्ञानकी देवी हो गयी है । इसी तरह अन्य देवता भी हैं, जैसे युद्धके, प्रेमके, सौंदर्यके देवता जिनके भौतिक व्यापार ३७ यदि कभी थे भी तो अब दिखाई नहीं देते । इसके स्पष्टीकरणमें इतना कह देना पर्याप्त नहीं है कि ऐसा परिवर्तन मानव-सभ्यताकी प्रगतिके साथ- साथ होना अवश्यंभावी ही था, इस परिर्तनकी प्रक्रिया भी खोज और स्पष्टीकरण चाहती है । हम देखते हैं कि इस प्रकारकी क्रान्ति पुराणोंमें भी हुई जो कि कुछ तो कई एक पुरानोंकी जगह नये नामों और रूपोंवाले अन्य देवताओंके आ जानेसे, पर कुछ उसी अविज्ञात प्रक्रियाके द्वारा हुई जिसे हम ग्रीक देवताख्यानके विकासमें देखते हैं । नदी सरस्वती म्युज ( Muse) और विद्याको देवी बन गयी है, वेदके विष्णु और रुद्र अब सर्वोच्च देवता, देवतात्रयीमेंसे दो अर्थात् क्रमश: जगत्की संरक्षिका और विनाशिका प्रक्रियाके द्योतक बन गये हैं । ईशोपनिषद्में हम देखते हैं कि वहां सूर्यसे एक ऐसे स्वयंप्रकाश दिव्यज्ञानके देवताके रूपमें प्रार्थना की गयी है जिसके कार्य द्वारा हम सर्वोकृष्ट सत्यको पा सकते हैं । और सूर्यका यही व्यापार गायत्री नामसे प्रसिद्ध उस पवित्र वैदिक मंत्रमें है जिसका जप न जाने कितने सहस्रों वर्षोंसे प्रत्येक बाह्मण अपने दैनिक सन्ध्यानुष्ठानमें करता आया है, और यहाँ यह भी ध्यान देने लायक है कि यह मंत्र ऋग्वेदकार, ऋग्वेदमें ऋषि विश्वामित्रके एक सूक्तका है । इसी उपनिषद्में अग्निसे विशुद्ध नैतिक कार्योके लिये प्रार्थनाकी गयी है, उसे पापोंसे पवित्र करनेवाला एवं आत्माको सुपथ द्वारा दिव्य आनंदके प्रति ले जानेवाला माना गया है और यहाँ अग्नि संकल्पकी शक्तिके साथ एकात्मता रखनेवाला तथा मानवकर्मोंके लिये उत्तरदाता प्रतीत होता है । अन्य उपनिषदोंमें यह स्पष्ट है कि देवता मानवदेहमें होनेवाले ऐन्द्रियिक व्यापारोंके प्रतीक हैं । सोम, जो वैदिक यज्ञके लिये सोमरस ( मदिरा ) देनेवाला पौधा ( वल्ली ) था, न केवल चन्द्रमाका देवता हो गया है अपितु मनुष्यमें वह अपनेको मनके रूपमें अभिव्यक्त करता है ।
शब्दोंके इस प्रकारके विकास कुछ कालकी अपेक्षा करते हैं, जो काल वेदोंके बाद और पुराणोंसे पहले बीता है, जिससे पहले भौतिक पूजा या सर्वदेवतामादी चेतनावाद था, जिसके साथ वेदका संबंध जोड़ा जाता है और जिसके बाद वह विकसित पौराणिक देवगाथाशास्त्र निर्मित हुआ जिसमें देवता और अधिक गम्भीर मनोवैज्ञानिक व्यापारोंवाले हो गये । और यह बीचका समय, बहुत सम्भव है, एक रहस्यवादका युग रहा हो । नहीं तो जो कुछ अबतक माना जाता है उसके अनुसार या तो नीचमें यह रिक्त स्थान छूटा रहता है या फिर यह रिक्त स्थान हमने बना लिया है, इस कारण बना लिया है क्योंकि हम वैदिक ऋषियोंके घर्मके विषयमें अनन्य रूपसे एकमात्र प्रकृतिवादी तत्त्वके साथ आबद्ध हो गये हैं । ३८ मेरा निर्देश यह है कि यह रिक्त स्थान हमारा अपना बनाया हुआ है और असलमें उस प्रांचीन, पवित्र साहित्यमें ऐसे किसी रिक्त स्थानकी सत्ता है ही नहीं । मैं जो मत प्रस्तुत करता हूँ वह यह है कि स्वयं ॠग्वेद मानव-विचारके उस प्रारम्भकालसे आया एक बड़ा भारी विविध उपदेशोंका ग्रन्थ है, जिस विचारके ही टूटे-फूटे अवशेष ने ऐतिहासिक एलूसिनियन तथा ओर्फिक रहस्य-वचन थे और यह वह काल था जब जातिका आध्यात्मिक और सूक्ष्म मानसिक ज्ञान स्थूल और भौतिक अलंकारों तथा प्रतीकचिह्नोंके एक ऐसे पर्देके पीछे छुपा हुआ. था जो उसके तत्त्वको अनधिकारी पुरुषोंसे सुरक्षित रखता था तथा दीक्षितोंके संमुख प्रकट कर देता था । पर किन कारणोंसे ज्ञानको इस. प्रकार छुपाया जाता था इसका निश्चय करना अब कठिन है ।
आत्मज्ञानकी तथा देवताओं-विषयक सत्यज्ञानकी गुप्तता एवं पवित्रता रखना-यह रहस्यवादियोंके प्रमुख सिद्धान्तोंमेसे एक था । उनका विचार था कि ऐसा ज्ञान साधारण मानवमनको दिये जानेके अयोग्य, बल्कि उसके लिये शायद खतरनाक भी था; कुछ भी हो, यह ज्ञान यदि लौकिक और अपवित्रित आत्माओंके प्रति प्रकट किया जाय तो इसके बिगड़ जाने और दुरुपयुक्त होने तथा विगुण हो जानेका भय तो था ही । इसलिये उन्होंने प्राकृतजनोंके लिये एक बाह्य पूजाविधिका रखना पसंद किया था जो प्रभावकारी होते हुए भी अपूर्ण थी, पर दीक्षितोंके लिए उन्होंने एक आंतरिक अनुशासन-पद्धतिको रखना पसंद किया, और अपनी भाषाको ऐसे शब्दों और अलंकारोंसे आवृत कर दिया था जो एक ही साथ विशिष्ट लोगोंके लिये आध्यात्मिक अर्थ तथा साधारण पूजार्थियों के समूदायके .लिये एक स्थूल अर्थ प्रकट करती थी । वैदिक सूक्त इसी सिद्धन्तको विचारमें रखकर रचे गये थे । वैदिक कंडिकाएँ और विघि-विघान ऊपरसे तो सर्वेश्वरवादकी प्रकृतिपूजाके लिये, जो उस समयका सामान्य धर्म थी, आयोजित किये गये एक बाह्य कर्मकाण्डके विस्तृत आचार थे, पर गुप्त तौरसे ये पवित्र वचन थे, आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञानके प्रभावोत्पादक प्रतीकचिह्न और आत्मसाघनाके आन्तरिक नियम थे जो उस समय मानयजातिकी सर्वोच्च उपलब्ध वस्तुएँ थे ।
सायण द्वारा अभिमत कर्मकाण्डप्रणाली अपने वाह्य रूपमें बेशक टिक सकती है, योरोपियन विद्वानों द्वारा प्रकट किया गया प्रकृतिपरक आशय भी सामान्य रूपमें माना जा सकता है, पर फिर भी इनके पीछे सदा ही एक सच्चा और अभीतक भी छिपा हुआ वेदका रहस्य है, अर्थात् वे रहस्यमय ३९ वचन, 'निण्या वचांसि'1 हैं, जो कि आत्मामें पवित्र और ज्ञानंमें जागे हुए पुरुषोंके लिये कहे गये थे । वैदिक शब्दोंके आशयों, वैदिक प्रतीकचिह्नोंके अभिप्रायों और देवताओंके अध्यात्मव्यापारोंको, निश्चित करके वेदके इस कम प्रकट किंतु अधिक आवश्यक गुह्यो तत्त्वको आविष्कृत कर देना एक बड़ा कठिन किन्तु अति आवश्यक कार्य है । ये अध्याय तथा इसके साथमें दी गयी वैदिक सूक्तोंकी व्याख्यायें इस ( कठिन और आवश्यक ) कार्यकी तैयारीके रूपमें ही हैं ।
वेदके विषयमें मेरी यह स्थापना यदि प्रामाणिक सिद्ध होती है तो इससे तीन लाभ होंगे । इससे जहां उपनिषदोंके वे भाग, जो अभीतक अविज्ञात पड़े हैं या ठीक तरह समझे नहीं गये हैं, खुल जायंगे वहाँ पुराणोंके बहुतसे मूलस्रोत भी आसानीसे और सफलतापूर्वक खुल जायँगे । दूसरे, इससे सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय परम्परा युक्तिपूर्वक स्पष्ट हो जायगी और सत्य प्रमाणित हो जायगी; .क्योंकि इससे यह सिय हो जायगा कि गम्भीर सत्यके अनुसार. वेदान्त, पुराण, तन्त्र, दार्शनिक सम्प्रदाय सब महान् भारतीय धर्म अपने मौलिक प्रारम्भमें वस्तुतः वैदिक स्रोत तक जा पहुंचते हैं । तक हम आगे आये भारतीय विचार के सब आधारभूत सिद्धान्तोंको उनके मूल बीजमें. या उनके आरम्भिक बल्कि आदिम रूपमें वेदमें देख सकेंगे | इस तरह भारतीय क्षेत्रमें तुलनात्मक धर्मका अधिक ठीक अध्ययन कर सकनेके लिये : एक स्वाभाविक प्रारंभबिन्दु;. उपलब्ध हो जायगा | इसके स्थानपर कि हम असुरक्षित कल्पनाओंमें भटकते रहे अथवा असंभावित विपर्ययोंके लिये और ऐसे संक्रमणोंके लिये जिनका स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता उत्तरदायी बनें, हमें एक ऐसे स्वाभाविक और, क्रमिक विकासका संकेत मिल जायगा जो बुद्धिको सर्वथा संतोष देनेवाला होगा । इससे प्रसंगवश, अन्य प्राचीन जातियोंकी प्रारम्भिक गाथाओं और देवताखयानोंमें जो कुछ अस्पष्टताएं हैं, उनपर भी प्रकाश पड़ सकता है । और अन्तमें इससे, मूल वेदमें जो असंगतियां दीखती हैं उनका एकदम स्पष्टीकरण हो जायगा और वे जाती रहेंगी | ये असंगतियाँ ऊपर-ऊपर ही दीखती हैं, क्योंकि वैदिक अभिप्रायका असलि सूत्र तो इसके आन्तरिक अर्थोमें ही पाया जा सकता है । वह सूत्र ज्यों ही मिल आता है त्यों ही वैदिक सूक्त बिल्कुल युक्तियुक्त और सर्वागपूर्ण लगने लगते हैं, इनकी भावप्रकाशनशैली यद्यपि हमारे आधुनिक बिचारने और बोलनेके तूरीकेकी दृष्टिसे कुछ विचित्र ढंगकी ________ 1, ॠग्वेद 4-3-16 | इसका अर्थ है 'गुह्य या गुप्त वचन' | ४० प्रश्न और उसका हल
लगे फिर भी अपने ढंगसे ठीक-ठीक और यथोचित हो जाती है । इसे शब्दावली की अधिकता की अपेक्षा शब्दसंकोच की तथा अर्थलघवकी जगह अर्थगांभीर्यके आधिक्यकी ही दोषिणी माना जा सकता है । वेद तब जंगली-पनके केवल एक मूनोरंजक अवशेष नहीं रहते, बल्कि जगत्की प्रारम्भिक धर्मपुस्तकोंमसे सर्वश्रेर्ष्ठोंकी गिनतीमें जा पहुंचते हैं ।
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